હિંદી ગઝલની પરંપરામાં સમકાલીન સમાજનો તારસ્વર સૌપ્રથમ દુષ્યન્ત કુમારની ગઝલોમાં મુખર થતો દેખાય છે. હિંદી ગઝલ પહેલવહેલીવાર સાકી, શરાબ, સનમ, બુલબુલ- અને એ રીતે ઉર્દૂ ગઝલની અર્થચ્છાયાઓ – છોડીને આમ-આદમીના ફાટેલા કપડાં અને ભૂખ્યા પેટ સુધી આવી. સમાજના છેડાના માણસનો આર્તસ્વર એ રીતે એમની ગઝલોમાં ગવાયો છે કે આંખમાં આંસુ આવી જાય. કવિએ પોતે પોતાની ગઝલ વિશે આમ કહ્યું હતું: “जिन्दगी में कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है जब तकलीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है। उस दौर में गमे जानाँ और गमे दौराँ तक एक हो जाते हैं। मैंने गजल उसी दौर में लिखी है।” ૩૦-૦૯-૧૯૩૩ના રોજ પૃથ્વીના પટ પર પ્રથમ શ્વાસ લેનાર આ શાયર માત્ર બેતાળીસ વર્ષની નાની વયે ૩૦-૧૨-૧૯૭૫ના રોજ કાયમી અલવિદા કહી ગયા પણ એમના શબ્દોમાં કંડારાયેલા આ ‘કોમન-મેન’ની વેદનાના શિલ્પ यावत् चद्रोदिवाकरौ અમર રહેશે…
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अब सबसे पूछता हूँ बताओ तो कौन था,
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया ।
मैं भी तो अपनी बात लिखूँ अपने हाथ से,
मेरे सफ़े पे छोड़ दे थोडा़ सा हाशिया ।
(सफ़ा=कागज़)
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते है क्षणिक उत्तेजना है ।
दोस्तो ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है ।
किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में,
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नक़ल लोगो ।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।
(पीर=पीडा)
सिर्फ़ हंगामा खडा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए ।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए ।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख ।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़,
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख ।
ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख ।
(रोजन=छेद, सुराख)
मरघट में भीड़ है या मज़ारों पे भीड़ है,
अब गुल खिला रहा है तुम्हारा निज़ाम और ।
(मरघट=समशान, मज़ार=कब्र)
घुटनों पे रख के हाथ खडे़ थे नमाज़ में,
आ-जा रहे थे लोग ज़ेहन में तमाम और ।
(ज़ेहन=समज़, दिमाग)
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता,
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे ।
ज़िन्दगी एक खेत है,
और साँसें जरीब है ।
(जरीब=जमीन नापने का साधन)
उफ़ नहीं की उजड़ गए,
लोग सचमुच गरीब है ।
जिन आँसुओं का सीधा तआल्लुक़ था पेट से,
उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया ।
बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा,
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए ।
इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने है ।
आपके क़ालेन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं ।
– दुष्यन्त कुमार