साये में धूप (कडी : १)- दुष्यन्त कुमार
હિંદી કાવ્ય-જગતમાં દુષ્યન્ત કુમાર એક એવું નામ છે જે ઉર્દૂના મહાકવિ ગાલિબની સમકક્ષ નિઃશંક માનભેર બેસી શકે છે. ખૂબ જ ટૂંકી જિંદગીમાં ખૂબ જ ઓછી ગઝલો લખી જનાર દુષ્યન્ત કુમારની ગઝલોએ જે સીમાચિહ્ન હિંદી સાહિત્યાકાશમાં સર્જ્યું છે એ न भूतो, न भविष्यति જેવું છે. એમની ગઝલોમાં જે મિજાજ, સમાજની વિષમતાઓ અને વિસંગતતાઓ સામે જે આક્રોશ અને જે મૌલિક્તા જોવા મળે છે એ એક અલગ જ ચીલો ચાતરે છે. ગઝલને હિંદીપણું બક્ષવામાં એમનો જે સિંહફાળો છે એ કદી અવગણી શકાય એમ નથી. એમના જ શબ્દોમાં જોઈએ તો, “मैं स्वीकार करता हूँ…. …कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बडा़ मुश्किल होता है । मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज्यादा से ज्यादा करीब ला सकूँ । इसलिये ये गज़लें उस भाषा में कही गयी है, जिसे मैं बोलता हूँ ।” માત્ર બાવન જ ગઝલોનો રસથાળ ધરાવતો એમનો એકમાત્ર ગઝલ-સંગ્રહ “साये में धूप” આજે પણ હિંદી ભાષાની સહુથી મૂલ્યવાન અસ્ક્યામત કેમ ગણાય છે એ જાણવા માટે ચાલો, એક લટાર મારીએ એમની ગઝલોની ગલીઓમાં…
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए ।
(मयस्सर=उपलब्ध)
न हो कमीज़ तो पाँवो से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए ।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए ।
(मुतमइन=संतुष्ट)
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं ।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आप को धोखा हुआ होगा ।
(सजदा = इबादत में झुकना)
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ।
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो,
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है ।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है ।
कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है,
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली ।
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया,
हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही ।
(इनायत=मेहरबानी)
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला,
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही ।
ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो,
कुरानो-उपनिषद खोले हुए है ।
हमारा क़द सिमट कर घिंट गया है,
हमारे पाँव भी झोले हुए है ।
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह,
ज़िन्दगी ने जब छुआ तब फ़ासला रखकर छुआ ।
खडे़ हुए थे अलावों की आँच लेने को,
सब अपनी अपनी हथेली जलाके बैठ गये ।
(अलावों=आग का ढेर)
लहू-लुहान नज़ारों का जिक्र आया तो,
शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गये ।
वो देखते हैं तो लगता है नींव हिलती है,
मेरे बयान को बंदिश निगल न जाए कहीं ।
(बंदिश=प्रतिबंध)
चले हवा तो किवाडों को बंद कर लेना,
ये गर्म राख शरारों में ढल न जाए कहीं ।
– दुष्यन्त कुमार
Chirag Patel said,
April 13, 2008 @ 10:00 AM
ઘણો જ સ્તુત્ય પ્રયાસ. જો કે મારા માટે ઉર્દુ સમજવું કઠીન છે છતાંય મઝા આવી.
Bharat Pandya said,
April 13, 2008 @ 10:17 AM
few more
Ho gayi hai pir parbatsi ab pighalani chahiye
is himalayse oi ganga nikalni chahiye.
sirf hanagama khada karana mera maksad nahi
meri koshishn ye he ki surta badlani chahiye.
Mere sieme me nahi to tere sineme shai
ho kahin par aag par aag nikalani chahiye.
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gajab ye hai ki apni maut ki aahat nahi sunte
wo sab-ke-sab parishan hain wahan par kya huya hoga
tumhare shahar mein ye shor sun-sun kar to lagta hai
ki insaano ke jungle mein koi haanka huya hoga
kayi faake bitakar mar gaya, jo uske baare mein
wo sab kehte hain ab, aisa nahi, aisa huya hoga
yahan to sirf goonge aur behra log baste hain
khuda jaane yahan par kis tarah jalsa huya hoga
chalo, ab yadgaron ki andheri kothri kholein
kam-aj-kam ek wo chehra to pehchana huya hoga
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Thank you for introducing such great modern shayar!!
pragnaju said,
April 13, 2008 @ 11:17 AM
શેરોનો ખજાનો -કોને છોડુંને કોને વખાણું? બધાજ સરસ.
આ પ્રયાસ તેમનાં બીજી રચનાઓ વાંચવાની પ્રેરણા આપશે.
જેવી કે
सूर्य का स्वागत-साये में धूप-आवाजों के घेरे / मत कहो, आकाश में कुहरा घना है /
बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / एक आशीर्वाद / हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए /
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / आज सड़कों पर /कहीं पे धूप / विदा के बाद प्रतीक्षा /आग जलती रहे /चाँदनी छत पे चल रही होगी / कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा /अपाहिज व्यथा / मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे /मेरी कुण्ठा / अब तो पथ यही है /तुलना / गांधीजी के जन्मदिन पर
અને એક રચના
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ|
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ फ़ासला रखकर छुआ|
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ|
क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआं|
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
आप के भी खून का रंग हो गया है सांवला|
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं|
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ|
इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां|
Pinki said,
April 14, 2008 @ 12:05 AM
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आप को धोखा हुआ होगा ।
nice sher…….! !
GAURANG THAKER said,
April 14, 2008 @ 12:13 AM
વાહ, વાહ્ ને વાહ્ વિવેકભાઇ…..આવુ કલેકશન મૂકતા રહૉ…..આભાર…
`Jay`Naik said,
April 14, 2008 @ 2:21 AM
Very Very Fine It Is. Your Collection is Really Superb. Keep The Choice & Collection Like This. Congratulation For This Collection & Give Me A Chance To Sail In It.
Sanjay Tailor said,
April 14, 2008 @ 6:57 AM
વાહ! મઝા આવી ગઇ…..
unki apeel hai ki unhen hum madad kren
chakoo ki pasliyon se guzarish to dekhiye !!!
dilip ghaswala said,
April 14, 2008 @ 9:12 AM
vivekbhai..
congrates..
hindi gazal provide me urja for me..
thank..u..
part two waiting..
dilip
gopal parekh said,
April 14, 2008 @ 10:40 PM
સાહેબ બીજો ભાગ ક્યારે પીરસો છો?, જલ્દી કરજો
suresh patel said,
April 15, 2008 @ 12:07 AM
Dear Vivek sir,
I thankful to u for love gazals,
i want to share u some personal, so please give me your personal email id for further communication,
thanks,
I waiting your kindly reply,
thanks again,
suresh p patel
(surya)
ધવલ said,
April 15, 2008 @ 5:29 PM
દુષ્યંતકુમારની અમર રચનાઓ પીરસવાનો વિચાર બહુ જ સરસ છે. એમની રચનાઓમાં જે સચ્ચાઈ છે બીજે ક્યાંક જ જોવા મળે છે. વળી ભાષાને સાદી રાખવાની એમની રીત એમની રચનાઓને એટલી વધારે ભોગ્ય બનાવે છે. એમણે પોતે જ લખ્યું છે.
મૈં જીસે ઓઢતા બિછાતા હું,
વો ગઝલ આપકો સુનાતા હું.
જ્યારે જ્યારે જીવનમાં થાક લાગે ત્યારે એમની રચનાઓ જોઈ જવી…. એમની રચનાઓનો સૌથી મોટો ખજાનો વેબ પર કવિતાકોશ પર છે.
Naresh Dudani said,
April 22, 2008 @ 3:01 PM
I have read a number of Dushyant Kumar’s ghazals after reading about him in Sarika, a literary Hindi magazine, now defunct, which had devoted one full issue to him in 1976 in his memory. I have that issue in my personal library as also a small collection of his ghazals.
My favourite is:
Ek jungle hai teri aankhon mein
main jahan raah bhool jata hun
Tu kisi rail si guzarti hai
main kisi pul sa thartharata hun
This ghazal has been sung by Meenu Purushottam (If I am not mistaken)
and I had heard it many times on Vividh Bharati in its non-filmi songs programme during late 1970s and early 1980s. It is very beautifully sung.
RAMESH K. MEHTA said,
February 4, 2009 @ 5:14 AM
I REALY ENJOYED DUSHYANT KUMAR’S GAZAL SINCE IT ALWAYS MEANINGFUL
AND CREATIVE.
jayshri Dalal said,
September 12, 2011 @ 5:13 AM
બહુ વખત બાદ દુષ્યન્ત કુમર ની ગઝલો વાચીને આનન્દ આવ્યો.
આજે પણ એ એટલીજ તાજી ને અસરકારક લાગે છે.
જયશ્રી..