હું દીવાનું શાંત અજવાળું હતો,
તેં પવન ફૂંકીને અજમાવ્યો મને.
અંકિત ત્રિવેદી

લયસ્તરો બ્લોગનું આ નવું સ્વરૂપ છે. આ બ્લોગને  વધારે સારી રીતે માણી શકો એ માટે આ નિર્દેશિકા જોઈ જવાનું ચૂકશો નહીં.

Archive for હિન્દી

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(जानना) – विनोद कुमार शुक्ल

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।

– विनोद कुमार शुक्ल

અનુવાદની આવશ્યક્તા ન હોવાથી મૂળ કવિતા જ રજૂ કરું છું. સારી કવિતા જટિલ શબ્દાડંબરની જરાય મહોતાજ હોતી નથી. સીધી દિલથી નીકળેલી વાત યથાતથ બીજા દિલ સુધી પહોંચાડી શકે એ સાચી કવિતા. અનુવાદ તો અપ્રસ્તુત જણાય જ છે, પિષ્ટપેષણ પણ બિલકુલ અનાવશ્યક લાગે છે. પણ એટલું જરૂર કહીશ કે આ રચના એકવાર વાંચીને આગળ વધી જવાને બદલે ત્રણ-ચારવાર એમાંથી પસાર જરૂર થજો અને પછી મને કહેજો કે કેવું લાગ્યું!

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कुछ त्रिपदियाँ – मिलिन्द गढ़वी

अक्सर दिल को समझाया है
झील में पत्थर मत फेंका कर
चाँद के सिर पे चोट लगेगी|

इस तनहाई से तंग आकर
जाने मैं क्या कर जाऊंगा
गालिब ने ग़ज़ले कह दी थी |

अपने आप से लड़ते लड़ते
कुछ लम्हों ने जान गँवा दी
बाकी सारे comma में है |

ताजा बर्फ के मौसम रखकर
मैंने एक पिटारी भेजी
आह! वो तुमने धूप मेँ खोली |

रात नहीं कटती है वरना
दिन तो कितने काट लिए हैं
तेरी यादों की कैची से |

चाँद की जेब से चोरी कर के
मैं कुछ किरनें ले आया हूँ
काश अमावस में काम आए |

मैंने इक अधमरी उदासी को
कितनी मुश्किल से जिंदगी दी थी
तुम हो की ‘वाह वाह’ करते हो |

एक कोने मेँ पड़ा है सूरज
और सवेरा शहर से गायब है
रात कुछ नागवार गुजरी है |

– मिलिन्द गढ़वी

ગુજરાતી કવિ મિલિન્દની કલમે કેટલીક હિંદી ત્રિપદીઓ. અવર ભાષા પર કવિની હથોટી તો અહીં સાફ દેખાય જ છે, પણ જે કલ્પનો-રૂપકો કવિએ અહીં પ્રયોજ્યા છે એની તાજગી તો કંઈક અલગ જ છે. આટલા Fresh metaphors અને આવી સશક્ત બાની આપણે બહુ ભાગ્યે જ જોઈએ છીએ. દરેક ત્રિપદી આરામથી મમળાવજો… જેમાંથી આ ત્રિપદીઓ લીધી છે એ સંગ્રહ ‘નન્હે આંસૂ’ આખો જ અદભુત થયો છે…

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હાસ્યમેવ જયતે : ૦૪ : भगवान मुझे इक साली दो ! – गोपालप्रसाद व्यास

तुम श्लील कहो, अश्लील कहो
चाहो तो खुलकर गाली दो !
तुम भले मुझे कवि मत मानो
मत वाह-वाह की ताली दो !
पर मैं तो अपने मालिक से
हर बार यही वर माँगूँगा-
तुम गोरी दो या काली दो
भगवान मुझे इक साली दो !

सीधी दो, नखरों वाली दो
साधारण या कि निराली दो,
चाहे बबूल की टहनी दो
चाहे चंपे की डाली दो।
पर मुझे जन्म देने वाले
यह माँग नहीं ठुकरा देना-
असली दो, चाहे जाली दो
भगवान मुझे एक साली दो।

वह यौवन भी क्या यौवन है
जिसमें मुख पर लाली न हुई,
अलकें घूँघरवाली न हुईं
आँखें रस की प्याली न हुईं।
वह जीवन भी क्या जीवन है
जिसमें मनुष्य जीजा न बना,
वह जीजा भी क्या जीजा है
जिसके छोटी साली न हुई।

तुम खा लो भले प्लेटों में
लेकिन थाली की और बात,
तुम रहो फेंकते भरे दाँव
लेकिन खाली की और बात।
तुम मटके पर मटके पी लो
लेकिन प्याली का और मजा,
पत्नी को हरदम रखो साथ,
लेकिन साली की और बात।

पत्नी केवल अर्द्धांगिन है
साली सर्वांगिण होती है,
पत्नी तो रोती ही रहती
साली बिखेरती मोती है।
साला भी गहरे में जाकर
अक्सर पतवार फेंक देता
साली जीजा जी की नैया
खेती है, नहीं डुबोती है।

विरहिन पत्नी को साली ही
पी का संदेश सुनाती है,
भोंदू पत्नी को साली ही
करना शिकार सिखलाती है।
दम्पति में अगर तनाव
रूस-अमरीका जैसा हो जाए,
तो साली ही नेहरू बनकर
भटकों को राह दिखाती है।

साली है पायल की छम-छम
साली है चम-चम तारा-सी,
साली है बुलबुल-सी चुलबुल
साली है चंचल पारा-सी ।
यदि इन उपमाओं से भी कुछ
पहचान नहीं हो पाए तो,
हर रोग दूर करने वाली
साली है अमृतधारा-सी।

मुल्ला को जैसे दुःख देती
बुर्के की चौड़ी जाली है,
पीने वालों को ज्यों अखरी
टेबिल की बोतल खाली है।
चाऊ को जैसे च्याँग नहीं
सपने में कभी सुहाता है,
ऐसे में खूँसट लोगों को
यह कविता साली वाली है।

साली तो रस की प्याली है
साली क्या है रसगुल्ला है,
साली तो मधुर मलाई-सी
अथवा रबड़ी का कुल्ला है।
पत्नी तो सख्त छुहारा है
हरदम सिकुड़ी ही रहती है
साली है फाँक संतरे की
जो कुछ है खुल्लमखुल्ला है।

साली चटनी पोदीने की
बातों की चाट जगाती है,
साली है दिल्ली का लड्डू
देखो तो भूख बढ़ाती है।
साली है मथुरा की खुरचन
रस में लिपटी ही आती है,
साली है आलू का पापड़
छूते ही शोर मचाती है।

कुछ पता तुम्हें है, हिटलर को
किसलिए अग्नि ने छार किया ?
या क्यों ब्रिटेन के लोगों ने
अपना प्रिय किंग उतार दिया ?
ये दोनों थे साली-विहीन
इसलिए लड़ाई हार गए,
वह मुल्क-ए-अदम सिधार गए
यह सात समुंदर पार गए।

किसलिए विनोबा गाँव-गाँव
यूँ मारे-मारे फिरते थे ?
दो-दो बज जाते थे लेकिन
नेहरू के पलक न गिरते थे।
ये दोनों थे साली-विहीन
वह बाबा बाल बढ़ा निकला,
चाचा भी कलम घिसा करता
अपने घर में बैठा इकला।

मुझको ही देखो साली बिन
जीवन ठाली-सा लगता है,
सालों का जीजा जी कहना
मुझको गाली सा लगता है।
यदि प्रभु के परम पराक्रम से
कोई साली पा जाता मैं,
तो भला हास्य-रस में लिखकर
पत्नी को गीत बनाता मैं?

– गोपालप्रसाद व्यास

કેટલી સરળ-સરસ વાતમાંથી કેવું મસ્ત નિર્ભેળ હાસ્ય નિષ્પન્ન કરાયું છે !!

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હાસ્યમેવ જયતે : ૦૩ : तू डाकुओं का बाप है – हुल्लड़ मुरादाबादी

क्या बताएं आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए

भूख, महंगाई, ग़रीबी इश्क़ मुझसे कर रहीं थीं
एक होती तो निभाता, तीनों मुझपर मर रही थीं
मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे
मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान थे
रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए
कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे
और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे
हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े
चार कविता, पांच मुक्तक, गीत दस हमने पढे
चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े

रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे
एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे
कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते
सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते
अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है
हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है

– हुल्लड़ मुरादाबादी

હાસ્ય અને વ્યંગનો સુંદર સંગમ….

મને આવી કવિતાઓની ગુજરાતીમાં સખત ખોટ સાલે છે…. ગુજરાતીના ટેલેન્ટેડ કવિઓને આગ્રહભરી વિનંતી કે આ કાવ્યપ્રકાર ઉપર ધ્યાન આપો પ્લીઝ – આમાં સર્જનનો આનંદ તો છે જ છે, સાથે પ્રચંડ લોકપ્રિયતા અને આમદાનીનો પણ સુભગ સંગમ છે….

વ્યંગ વિષે કાકા હાથરસી શું કહે છે તે સાંભળીએ :-

व्यंग्य एक नश्तर है
ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।
काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं
तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक
विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक
रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।

– કાકા હાથરસી

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त्रिपदी – मिलिन्द गढवी

आज भी पार जा नहीं सकता,
आज भी तैरना नहीं आता।
सोच में रोज़ डूब जाता हूँ…

– मिलिन्द गढवी

ત્રણ જ પંક્તિ પણ કેવું ઉમદા કવિકર્મ! ત્રિપદીની પહેલી બંને પંક્તિની શરૂઆતમાં આવતું ‘આજ ભી’ ન માત્ર ‘નહીં’ને દોહરાવે છે, બલકે દ્વિગુણિત કરે છે. નાની અમથી લાગતી વાત માત્ર રજૂઆતના બળે કેવી મજાની બની શકે છે એનું ઉત્તમ ઉદાહરણ છે આ… કવિતા તો સ્વયંસિદ્ધ છે એટલે એના વિશે કંઈ બોલવાનું રહેતું નથી…

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मधुशाला : ०९ : रामदास – रघुवीर सहाय

चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी

धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे क़दम रख कर के आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी

निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी

भीड़ ठेल कर लौट गया वह
मरा पड़ा है रामदास यह
देखो-देखो बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी

– रघुवीर सहाय

આ કાવ્ય BBC દ્વારા ઘોષિત સદીના શ્રેષ્ઠ 10 હિન્દી કાવ્યોમાં સ્થાન ધરાવે છે. તાજેતરમાં સલમાનખાન જે રીતે નિર્દોષ છૂટી ગયો છે અને સમગ્ર ન્યાયવ્યવસ્થાના તેમજ પોલિસતંત્રના ગાલે સણસણતો મારીને નફ્ફટાઈપૂર્વક હસી રહ્યો છે , તે પરિસ્થિતિને હૂબહૂ આલેખાઈ છે અહીં.

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मधुशाला : ०५ : है तो है – दीप्ति मिश्र

वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगावत है तो है

सच को मैने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है

कब कहा मैनें कि वो मिल जाये मुझको, मै उसे
ग़ैर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है

जल गया परवाना तो शम्मा की इसमे क्या खता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है

दोस्त बनकर दुश्मनों-सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है

दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में कुर्बत है तो है

– दीप्ति मिश्र

कुर्बत= સામિપ્ય

ત્રણેક વર્ષ પહેલા મેં આ ગઝલ પ્રથમવાર વાંચેલી… સાવ સીધી અને સરળ… વાંચતાવેંત જ એટલી ગમી ગયેલી કે મેં એનો સાછંદ ગુજરાતીમાં અનુવાદ કરી નાંખેલો.  જો કે કાફિયાઓ એ જ રાખેલા. 🙂

આખી ગઝલમાં કવિએ પ્રેમની ખુમારી અને પ્રેમમાં બગાવતને ઠાંસી ઠાંસીને ભર્યા છે. વારંવાર પુનરાવર્તિત થતો રદીફ है तो है  ખુમારી, બગાવત અને don’t careનું અદ્ભૂત વાતાવરણ સર્જે છે અને મક્તા સુધીની સફરમાં તો એ વાતાવરણને વધુ ને વધુ પ્રબળ બનાવી દે છે. પ્રિયજન સાથેની અલગતાનું acceptance પણ સામિપ્યની અદ્ભૂત ખુમારી સાથે…

***

છે, તો છે !

એ ભલે મારો નથી તો પણ મુહોબ્બત છે, તો છે !
ને જો એ રીતિ-રિવાજોથી બગાવત છે, તો છે !

સત્યને સત્ય જ કહ્યું મેં, કહી દીધું તો કહી દીધું !
એ જો દુનિયાની નજરમાં મારી ગફલત છે, તો છે !

ક્યાં કહ્યું છે મેં- મળી જાય એ મને ને એને હું ?
એ અવરનો થાય નહીં- બસ એ જ હસરત છે, તો છે !

જો પતંગિયું ખુદ બળે તો વાંક મીણબત્તીનો શો ?
રાતભર બાળીને બળવું એની કિસ્મત છે, તો છે !

દોસ્ત થઈને પણ એ દુશ્મન જ્યમ સતાવે છે મને,
તોય એ નિર્દય પર મને મરવાની આદત છે, તો છે !

દૂર છે ને દૂર રહેવાના સદા ધરતી ને આભ,
દૂરતા છે તોયે બંને વચ્ચે ચાહત છે, તો છે !

(અનુવાદ: મોના નાયક ‘ઊર્મિ’ )

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