રાજકારણ વિશેષ : ૦૮ : भेड़िया – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
-एक
भेड़िए की आँखें सुर्ख़ ( લાલચોળ ) हैं।
उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख़ न हो जाएँ।
और तुम कर भी क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हो?
यदि तुम मुँह छिपा भागोगे
तो भी तुम उसे
अपने भीतर इसी तरह खड़ा पाओगे
यदि बच रहे।
भेड़िए की आँखें सुर्ख़ हैं।
और तुम्हारी आँखें?
-दो
भेड़िया ग़ुर्राता है
तुम मशाल जलाओ।
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क़ है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।
अब तुम मशाल उठा
भेड़िए के क़रीब जाओ
भेड़िया भागेगा।
करोड़ों हाथों में मशाल लेकर
एक-एक झाड़ी की ओर बढ़ो
सब भेड़िए भागेंगे।
फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िए आपस में ग़ुर्राएँगे
एक-दूसरे को चीथ खाएँगे।
भेड़िए मर चुके होंगे
और तुम?
—तीन
भेड़िए फिर आएँगे।
अचानक
तुममें से ही कोई एक दिन
भेड़िया बन जाएगा
उसका वंश बढ़ने लगेगा।
भेड़िए का आना ज़रूरी है
तुम्हें ख़ुद को चहानने के लिए
निर्भय होने का सुख जानने के लिए
मशाल उठाना सीखने के लिए।
इतिहास के जंगल में
हर बार भेड़िया माँद से निकाला जाएगा।
आदमी साहस से, एक होकर,
मशाल लिए खड़ा होगा।
इतिहास ज़िंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया?
– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
માનવજાત અસ્તિત્વમાં આવી પછી સમાજરચના થઈ ત્યાર પછી સતત એક આદર્શ રાજ્યવ્યવસ્થાની શોધ ચાલી રહી છે. આજે પણ કોઈ પરફેક્ટ વ્યવસ્થા નથી રચી શકાઈ. લોકશાહી અત્યારે”Lesser Evil” નું સ્થાન ધરાવે છે, પરંતુ તેમાં પણ પુષ્કળ ત્રૂટિઓ છે. લોકશાહીની સફળતાનો આધાર નાગરિકની ક્વોલિટી ઉપર છે.
કાવ્યજગત કઈ રીતે સામાજિક/રાજકીય નિસ્બતથી અલિપ્ત હોઈ જ શકે !!?? જે સમાજમાં હરક્ષણ દેખાય છે તે કવિ અનુભવે છે અને કાવ્યે કંડારે છે. એમાં જનસામાન્યનો ચિત્કાર પડઘાય છે.
ત્રણ ભાગમાં એક જ કાવ્ય છે. પહેલાં ખંડમાં કવિ ચેતવે છે કે આસુરી રાજકીય તાકાતથી આંખ આડા કાન ન કરો – એની આંખો માં આંખો પરોવી સામનો કરો…. બીજા ખંડમાં આતતાયી રાજ્યશક્તિનો સામનો કઈ રીતે કરવો તે વર્ણન છે- સમૂહશક્તિ માટે તે અશક્ય નથી. અંગ્રેજ સામે ઝૂઝવા માટે હિંદુસ્તાન પાસે આ રસ્તો હતો. મશાલ એ જાગ્રતિ/જ્ઞાનનું પ્રતિક છે. ત્રીજો ખંડ કાવ્યનું હાર્દ છે. કોઈપણ ક્રાંતિનું એ અભિન્ન ભયસ્થાન છે-ક્રાંતિકારી પોતે જ આતતાયીનું સ્થાન લઈ લેશે….. ઈતિહાસમાં આવા અસંખ્ય ઉદાહરણ છે. કવિ એનો પણ રસ્તો બતાવે છે…. ત્રણે ખંડમાં અંતે કવિ પ્રશ્ન મુકે છે અને વાચકને એ કદી ભૂલવા નથી દેતા કે સમગ્ર ઘટનાક્રમના કેન્દ્રમાં નાગરિક પોતે છે. નાગરિકે એ નથી ભૂલવાનું કે અન્ય કોઈ આ “ભેડિયા”ને પરાસ્ત નહીં કરી શકે….નાગરિકે પોતે જ કરવાનો છે….
સર્વેશ્વર દયાલજી હિન્દી કાવ્યનું અતિસન્માનનીય નામ – અને આ કવિતા તેઓની ખૂબ જાણીતી રચના….
pragnajuvyas said,
December 12, 2022 @ 9:31 PM
‘इतिहास ज़िंदा रहेगा
और तुम भी
और भेड़िया?’ – तिरोध का कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ।
जिस समय शासन सत्ता के ‘भेड़िये’ और ‘तेंदुवे’ निरीह जनता को अपना शिकार बना रहे हों उस समय सर्वेश्वर जैसे कवि आत्मश्लीन नहीं रह सकते वे मशाल जलाकर जनता के साथ खड़े होंगे।
“अब मैं कवि नहीं रहा एक काला झंडा हूँ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में खड़ी है मेरी कविता।”
किसी खेमे का समर्थन ना करते हुए वो आधारभूत धारणाओं को कविताओं के जरिये उठाते थे।धारणाए जो क्रमबद्ध तरीके से समजा में होती आई हैं और होती जा रहीं हैं। “भेड़िया” कविता इसका सफल उद्धरण है, जो तीन हिस्सों में लिखी गयी है। पहले हिस्से में समाज भेड़िये का सामना करता है, दूसरे मे उसे हरता है और तीसरे में नए भेड़ियों को जन्म देता है। कविताओं को भागों में बाट कर एक क्रम में खींचना सर्वेशवर की शैली थी। ये क्रम कई रूप में कारीगर थे। विषय को आसान करने के अलावा ये निरंतर होते धीमे बदलावों को बड़ी कुशलता से उजागर करते हैं। जो जनचेतना के लिए अनिवार्य है। इन सब के साथ व्यंग्य की प्रचुरता भी है | व्यंग्य जो जरूरी है एक घटना को अलग चश्मों से देखने के लिए। समाज को उदार और सहनशील बनाने के लिए। व्यंग्य की महत्त्व को दर्शाते हुए सर्वेश्वर व्यंग्य करते हैँ –
व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो। सामाजिक विमर्श उनकी कविताओं एक मात्र बिंदु नहीं था। हालांकि, अगर उनकी समाज केंद्रित कविताओं को पढ़ा जाये तो सर्वेश्वर जी के जीवन और उनके प्रतिवेश का प्रभाव उनके काव्य में साफ़ दीखता है । सामाजिक क्रांति की पहल करने वाले प्रतिरोध के नायकों- बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह सभी को इस चुनौती का सामना करना पड़ा है और उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। धन्यवाद।