રાજકારણ વિશેષ : ૦૪ : પસંદગીના શેર – દુષ્યન્ત કુમાર
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। (मयस्सर-नसीब)
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
तू परेशान बहुत है, तू परेशान न हो,
इन खुदाओं की खुदाई नहीं जाने वाली।
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला,
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही।
कभी किश्ती, कभी बतख़, कभी जल,
सियासत के कई चोले हुए हैं।
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर है,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।
दरख़्त है तो परिन्दे नज़र नहीं आते,
जो मुस्तहक़ है वही हक़ से बेदख़ल, लोगों। (दरख़्त- पेड, मुस्तहक़-हक़दार)
हर सडक पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
आज सडकों पर लिखे हैं सैकडों नारे न देख,
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
उफ़ नहीं की उज़ड गए,
लोग सचमुच गरीब हैं।
जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में,
हम नहीं है आदमी, हम झुनझुने हैं। (झुनझुना-ઘૂઘરો)
सैर के वास्ते सडकों पे निकल आते थे,
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है।
कौन शासन से कहेगा, कौन समझेगा,
एक चिडिया इन धमाकों से सिहरती है।
जिस तबाही से लोग बचते थे,
वो सरे आम हो रही है अब।
अज़मते मुल्क इस सियासत के, (अज़मत–इज्जत)
हाथ नीलाम हो रही है अब।
गूँगे निकल पडे हैं, जुबाँ की तलाश में,
सरकार के ख़िलाफ ये साज़िश तो देखिए।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं,
बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार। (दरकिनार-अलायदा, अलग)
ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
ये हमारे वक़्त की सब से सही पहचान है|
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है|
(मस्लहत-आमेज़-जिसमें कोई परामर्श, सलाह सामिल हो)
मुझमें रहते हैं करोडों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
– दुष्यंत कुमार
લયસ્તરોની અઢારમી વર્ષગાંઠની ઉજવણી નિમિત્તે પ્રારંભાયેલ રાજકારણ-વિશેષ કવિતાઓની શૃંખલામાં આજે આ પાંચમો મણકો.
માત્ર સાડા ચાર ડઝનથીય ઓછી ગઝલ લખી હોવા છતાં દુષ્યન્તકુમાર હિંદી ગઝલમાં અભૂતપૂર્વ સીમાચિહ્ન બની રહ્યા છે… હિંદી ગઝલને દુષ્યંત સે પહલે ઔર દુષ્યંત કે બાદ -આમ બે ભાગમાં વહેંચીને જોવી પડે એનાથી મોટી સિદ્ધિ બીજી કઈ હોઈ શકે? દુષ્યન્તકુમારની ગઝલોની હરએક ગલીઓમાંથી રાજકારણ અને લોકોની સમસ્યાઓના પડઘા સંભળાતા રહે છે. તેઓ સામાજિક જનચેતનાના કવિ હતા… એમની ગઝલોમાંથી વીણેલાં મોતી આપ સહુ માટે…
Girish guman said,
December 8, 2022 @ 11:44 AM
Wah khub j saras
Aasifkhan aasir said,
December 8, 2022 @ 11:51 AM
वाह वाह
pragnajuvyas said,
December 8, 2022 @ 8:04 PM
સામાજિક જનચેતનાના કવિ શ્રી દુષ્યન્ત કુમાર શેરો ગમ્યા. તેમા આ શેર
मुझमें रहते हैं करोडों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
વધુ ગમ્યો.
યાદ આવે આખી ગઝલ..
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
ख़ास सड़कें बंद हैं तबसे मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है
इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है