માતૃમહિમા : ૦૩ : सिपाही का मर्सिया – फैज़ अहमद फैज़
उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
तुमरी सेज सजावन कारन
देखो आई रैन अँधियारन
नीले शाल-दोशाले ले कर [ ઘેરા રંગની શાલ ]
जिन में इन दुखियन अँखियन ने
ढेर किए हैं इतने मोती
इतने मोती जिन की ज्योती
दान से तुम्हरा, जगमग लागा
नाम चमकने
उट्ठो अब माटी से उट्ठो
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
घर घर बिखरा भोर का कुंदन [ સવારનો સોનેરી તડકો }
घोर अँधेरा अपना आँगन
जाने कब से राह तके हैं
बाली दुल्हनिया, बाँके वीरन
सूना तुमरा राज पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है
बैरी बिराजे राज-सिंहासन
तुम माटी में लाल
उट्ठो अब माटी से उट्ठो,
जागो मेरे लाल
हठ न करो माटी से उट्ठो,
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
– फैज़ अहमद फैज़
મા નો આર્તનાદ છે – વીર પુત્ર અન્યાય સામે લડતા શહીદી પામે છે ત્યારે મા વિશ્વાસ નથી કરી શકતી કે તે હવે કદી નહીં ઉઠે….દીકરાને અદમ્ય વ્હાલથી ઉઠાડે છે….
આ નઝ્મ વાંચીને આંખ ભીની ન થાય તો નવાઈ….
માભોમ માટે વીરગતિ પામતા પુત્રોની માતાઓની પરિસ્થિતિ વિચારતા રુંવાડા ઊભા થઈ જાય !! પોતાના હાથે વીરતિલક કરીને વહાલસોયાને રણભૂમિએ વિદાય કરતી મા પુત્ર કરતાં ઓછી વીર નથી હોતી…..
નૈયારા નૂરના અદ્ભૂત કંઠે આ રચના ગવાયેલી છે 👇🏻
pragnajuvyas said,
December 7, 2021 @ 10:18 AM
–
फैज की शायरी दुनियाके इंकलाबी कवियो जैसी है। पढ़ते वक्त लगता है कि जम्हूरियत के पर्दे में धीरे-धीरे लोगों को जम्हूरी हकों से वंचित करती गई है, आखिर उनकी नज्मों में मौजूद गम और उदासी में ऐसा क्या है जो दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित-वंचित जन की अंतरात्माके तार जुड़ते हैं।
–सन्नाटे को चीरती हुई ग़मज़दा और तड़पती हुई आवाज़
घोर अँधेरा अपना आँगन
जाने कब से राह तके हैं
बाली दुल्हनिया, बाँके वीरन
सूना तुमरा राज पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है
बैरी बिराजे राज-सिंहासन
तुम माटी में लाल
फैज उस गहन उदासी और पीड़ा के भीतर से मानो इंकलाब की जरूरत पैदा करते हैं और गहन अंधेरे में भी सुबह का यकीन तलाश लाते हैं-
ये ग़म जो इस रात ने दिया है ये ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है सहर जो शब से अज़ीमतर है
Lata Hirani said,
December 9, 2021 @ 12:42 AM
નઝમ સાંભળીને આંખ ભીની થઈ…..