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September 4, 2018 at 7:58 AM by તીર્થેશ · Filed under ગઝલ, રાજેશ રેડ્ડી
यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है
मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
न बस में ज़िंदगी उस के न क़ाबू मौत पर उस का
मगर इंसान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है
अजब ये ज़िंदगी की क़ैद है दुनिया का हर इंसाँ
रिहाई माँगता है और रिहा होने से डरता है
– राजेश रेड्डी
આમ તો આખી ગઝલ સરસ છે પણ મક્તાને લીધે આખી ગઝલની ઊંચાઈ બદલાઈ જાય છે…..
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January 13, 2015 at 12:30 AM by તીર્થેશ · Filed under ગઝલ, રાજેશ રેડ્ડી
यूँ देखिये तो आंधी में बस इक शजर गया [ शजर = वृक्ष ]
लेकिन न जाने कितने परिन्दों का घर गया
जैसे ग़लत पते पे चला आए कोई शख़्स
सुख ऐसे मेरे दर पे रुका और गुज़र गया
मैं ही सबब था अबके भी अपनी शिकस्त का
इल्ज़ाम अबकी बार भी क़िस्मत के सर गया
अर्से से दिल ने की नहीं सच बोलने की ज़िद
हैरान हूँ मैं कैसे ये बच्चा सुधर गया
उनसे सुहानी शाम का चर्चा न कीजिए
जिनके सरों पे धूप का मौसम ठहर गया
जीने की कोशिशों के नतीज़े में बारहा [ બારહા = વારંવાર ]
महसूस ये हुआ कि मैं कुछ और मर गया
– राजेश रेड्डी
હમણાં જ કવિના સ્વમુખે આ ગઝલ સાંભળવાનો લ્હાવો મળ્યો. એક એક શેર નાયબ મોતી છે !!
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May 11, 2014 at 12:30 AM by તીર્થેશ · Filed under ગઝલ, રાજેશ રેડ્ડી
अक्स आईने में आकर भी न आया हुआ है
सबने अपने में कहीं खुद को छुपाया हुआ है
जिंदगी तो कभी आई ही नहीं पर हमने
कब से जीने का ये इल्ज़ाम उठाया हुआ है
दिल के जलने की खबर दुनिया को लगने हि न दी
राख के नीचे धुँआ हमने दबाया हुआ है
कब ख़ज़ाना ये लुटाया है किसी ने ह्म पर
अपनी आँखों का हर इक मोती कमाया हुआ है
थरथराती ही रहेगी मेरी लौ बुज़ने तक
वो दिया हूँ जो हवाओं का सताया हुआ है
नाशनासाई का क्या ज़िक्र शनासाओं की [ नाशनासाई = अपरिचय , शनासा = परिचित ]
अब तो बेगाना यहाँ अपना हि साया हुआ है
खूब वाक़िफ़ है हकीक़त से तेरी सोहरत की
हमने भी थोड़ा-बहुत नाम कमाया हुआ है
रोज़ ही ताज़ा सुखन होता है नाज़िल हम पर [ नाज़िल = अवतार ]
रोज़ ही ताज़ा सितम वक़्त न ढाया हुआ है
– राजेश रेड्डी
આજે નાવીન્યને ખાતર એક હિન્દી ગઝલ…. આમ તો સરળ ગઝલ છે. છેલ્લેથી બીજો શેર જરા નબળો લાગ્યો,બાકી બધા ગમ્યા.
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August 4, 2013 at 12:30 AM by તીર્થેશ · Filed under ગઝલ, રાજેશ રેડ્ડી
अच्छा मैं दूसरों से बुरा दूसरों से हूँ
मैं सोचता हूँ जो भी हूँ- क्या दूसरों से हूँ ?
अपने में अपने आपको जब ढूँढने गया
मालूम ये हुआ मैं भरा दूसरों से हूँ
जब तक न बन सका है मेरा अपना कोई कद
छोटा मैं दूसरों से बड़ा दूसरों से हूँ
अर्से से कुछ अजीब है इस दिल की कैफियत
नाराज़ खुद से हूँ मैं खफ़ा दूसरों से हूँ
हद तो ये है की आईनाखाने में भी मुझे
लगता है बारहा मैं घिरा दूसरों से हूँ
– राजेश रेड्डी
જરાક change ખાતર આજે આ હિન્દી ગઝલ …. રાજેશ રેડ્ડી નવા યુગના બહુ પ્રતિભાશાળી શાયર છે. પ્રમાણમાં સરળ હિન્દી છે જેથી તરજુમો કરતો નથી.
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