શેર – अहमद फ़राज़
अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए
ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
– अहमद फ़राज़
આ નાનાં નાનાં દર્દ તો થાતાં નથી સહન,
દે એક મહાન દર્દ અને પારાવાર દે.
– મરીઝ
અંદાઝ સરખો છે. ભાવાર્થમાં થોડો ફરક ખરો. ફરાઝસાહેબ દિલને સજા આપવા ઈચ્છે છે, મરીઝસાહેબ સૂફીવાણી બોલે છે કે એવું શાશ્વત દર્દ આપ કે પછી તારા સિવાય કંઈ સૂઝે જ નહીં….
પરંતુ અહીં ઈરાદો શેરના વિશ્લેષણનો નથી. બંને શેર એક અનોખું ભાવવિશ્વ ઊભું કરે છે તે અનુભવવાનો છે. જે.કૃષ્ણમૂર્તિ કહે છે – ” Whenever there is feeling of sadness, check your own premises.” કદાચ તેઓની પ્રજ્ઞાના સ્તરે આ સહજ હશે….હાલ તો એવો હાલ છે કે ઝખ્મ થાય છે, ઝખ્મ પીડા દે છે, અને દિલ ફરિયાદ પણ કરે છે….. હૈયું સંવેદનશીલ હશે તો એ બધું અનુભવશે જ, અને અનુભવશે એટલે પીડા પણ પામશે જ…..અને ત્યારે ફરાઝસાહેબ જેવો સૂર પોતીકો લાગશે…..
pragnajuvyas said,
February 16, 2021 @ 5:22 PM
हर एक शायर अपनी शायरी को अलग अलग तरीके से प्रस्तुत करता है, और अपनी शायरी में उदासीनता को दिखाने का भरपूर प्रयास करता है जिंदगी को कहीं अलग तरीके से दिखाने का प्रयास करता है। इसी तरह अहमद फ़राज़ ने अपनी शायरी में जिंदगी का जिक्र किया है, और बखूबी तरीके से जिंदगी को अपनी शायरी में उतारा है।
અહમદ ફરાઝસાહેબનો મજાના શેરનુ ડો તીર્થેશ દ્વારા સ રસ આસ્વાદ
એક અનોખું ભાવવિશ્વ અંગે આખી ગઝલ સાથે માણીએ તો વધુ મઝા આવશે
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे
अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है कि आग़ाज़ तू करे
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे
अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए
ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र
अब कोई हादसा ही तिरे रू-ब-रू करे
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो ‘फ़राज़’
दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे
સાથે આવા ज़ख़्म અંગે બીજા શાયરોની વાતે વધુ મજા આવશે
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म नहीं हूँ मगर मसीहाई
मिरे बदन में मिरी जान क्यूँ नहीं रखती ख़ालिद इबादी
नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
जा के तब कोई मसीहाई पे मजबूर हुआ साइमा इसमा
कितने ही ज़ख़्म हैं मिरे इक ज़ख़्म में छुपे
कितने ही तीर आने लगे इक निशान पर शकेब जलाली
ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा
ऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना ज़ेब ग़ौरी
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया नासिर काज़मी
ज़ख़्म पे ज़ख़्म खा के जी अपने लहू के घूँट पी
आह न कर लबों को सी इश्क़ है दिल-लगी नहीं एहसान दानिश
ज़ख़्म गिनता हूँ शब-ए-हिज्र में और सोचता हूँ
मैं तो अपना भी न था कैसे तुम्हारा हुआ हूँ अहमद फ़रीद
ज़मीं के ज़ख़्म समुंदर तो भर न पाएगा
ये काम दीदा-ए-तर तुझ को सौंपना होगा कैफ़ी विजदानी
रूह की गहराई में पाता हूँ पेशानी के ज़ख़्म
सिर्फ़ चाहा ही नहीं मैं ने उसे पूजा भी है अख़्तर होशियारपुरी
बात का ज़ख़्म है तलवार के ज़ख़्मों से सिवा
कीजिए क़त्ल मगर मुँह से कुछ इरशाद न हो दाग़ देहलवी
दिए हैं ज़िंदगी ने ज़ख़्म ऐसे
कि जिन का वक़्त भी मरहम नहीं है वली आलम शाहीन
मैं ने चाहा था ज़ख़्म भर जाएँ
ज़ख़्म ही ज़ख़्म भर गए मुझ में अम्मार इक़बाल
लम्स-ए-सदा-ए-साज़ ने ज़ख़्म निहाल कर दिए
ये तो वही हुनर है जो दस्त-ए-तबीब-ए-जाँ में था अहमद शहरयार
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए जाँ निसार अख़्तर
दूसरों के ज़ख़्म बुन कर ओढ़ना आसाँ नहीं
सब क़बाएँ हेच हैं मेरी रिदा के सामने शहपर रसूल
दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले
हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले कैफ़ भोपाली
कितने ही ज़ख़्म हरे हैं मिरे सीने में ‘नियाज़’
आप अब मुझ से इनायात की बातें न करो अब्दुल मतीन नियाज़
ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक
वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल महबूब ख़िज़ां
सदा किसे दें ‘नईमी’ किसे दिखाएँ ज़ख़्म
अब इतनी रात गए कौन जागता होगा अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकता
दर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले सदा अम्बालवी