नहीं जाती – दुष्यंत कुमार
ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं
जिन में बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
– दुष्यंत कुमार
फ़सीलों = નગરની ફરતે આવેલી દીવાલ, નગરકોટ ; बाम = છત
કેટલા ઓછા શબ્દો ! કેટલા સરળ શબ્દો ! અને કેટલી સચોટ વાતો ! ખાસ તો ત્રીજો શેર જુઓ !! જો કે બધા જ અદભૂત છે….
pragnajuvyas said,
April 29, 2020 @ 12:00 PM
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
वाह! वाह! क्या बात है! कितनी सटिक बात है !!
दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।
जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।
धन्यवाद दुष्यन्त कुमार, धन्यवाद तीर्थेशजी
હરિહર શુક્લ said,
May 1, 2020 @ 12:00 AM
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
કવિએ આદત શબ્દ બહુ ખૂબીથી પ્રથમ પંક્તિમાં વાપર્યો છે અને એટલી જ ખૂબીથી બીજી પંક્તિમાં “तू” ને ન જવાની વાત કહી છે 👌💐
Pravin Shah said,
May 4, 2020 @ 10:10 AM
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
ધવલ said,
May 4, 2020 @ 10:44 AM
સલામ ! સલામ ! સલામ !