मधुशाला : १० : ………चाहिए – दुष्यंतकुमार
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
– दुष्यंतकुमार
હિંદી કાવ્યનો ઉત્સવ આ ગઝલ વિના અધૂરો રહી જાય……..સરળ શબ્દો,વેધક વાત,સ્પષ્ટ વાત અને સુંદર લય…….
KETAN YAJNIK said,
December 16, 2015 @ 3:46 AM
સલામ્
Maheshchandra Naik said,
December 16, 2015 @ 5:42 PM
સરસ ગઝલ અને કવિશ્રી દુષ્યંતકુમાર ને સલામ………..
ધવલ said,
December 16, 2015 @ 8:55 PM
એક તીર જેવી ગઝલ. એક વાર જે ઘાયલ થાય તે કદી ન ભૂલે.
Harshad said,
December 17, 2015 @ 8:04 PM
Very nice. Like it.