मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा….- શકીલ બદાયૂંની
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे
ઐ મારા દોસ્ત, મારા હમજબાં, મને મિત્ર બની દગો ન દે….ઈશ્કના દર્દથી હું મૃતઃપ્રાય છું, મને જિંદગીની દુઆઓ ન દે…..
मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी इसी रौशनी से है ज़िंदगी
मुझे डर है ऐ मिरे चारा-गर ये चराग़ तू ही बुझा न दे
મારા સળગતા હૈયાથી જે રોશની છે, તે રોશનીથી જ તો મારી જિંદગી છે ! મને ડર છે ઐ મારા હકીમ, કે તું પોતે જ આ ચિરાગને બુઝાવી ન દે….[ અર્થાત – મને તારું ડહાપણ નહીં આપ, મને સળગવા જ દે….]
मुझे छोड़ दे मिरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मिरा दर्द और बढ़ा न दे
મને મારા હાલ પર છોડી દે ઐ મારા હકીમ, તારો વળી શું ભરોસો ?! આ તારી નાનકડી મહેરબાની ક્યાંક મારુ દર્દ વધારી ન દે… [ આગલા શેરના અનુસંધાનમાં આ શેર કહ્યો લાગે છે – તારી દવા કદાચ ક્ષણભર માટે મને સારો કરી પણ દે, પણ એ ક્ષણિક રાહતને લીધે ત્યાર પછી પાછું જે દર્દ મારી તકદીરમાં છે તે દર્દ તો મીનમેખ છે જ ! ક્ષણભરની રાહત પછી એ દર્દ અસહ્ય થઈ પડશે…. ]
मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शो’लों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है ये कहीं चमन को जला न दे
મારો હૌંસલોં એટલો બુલન્દ છે કે પરાયા અગનગોળાઓનો લેશ ડર નથી. મને ડર પુષ્પોતણી આગનો છે, જે જરૂર ચમનને ફૂંકી મારશે… [ મારી દુશમન મારી અંદર રહેલી જ્વાળામુખી સમી ઊર્મિઓ છે….]
वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ ‘शकील’ कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
તેઓ સુરાહી-જામ લઈને ઉઠ્યા છે, અરે શકીલ ! ક્યાં છે તું ? તારો જામ લેવા તારે બદલે કોઈ બીજું હાથ લંબાવી ન દે !!
– શકીલ બદાયૂંની
બેગમ અખ્તરસાહેબા 👇🏻👇🏻
pragnajuvyas said,
April 6, 2022 @ 12:23 AM
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे
लाजवाब
शकील की शायरी अपने सबसे कोमल और सुंदर रूप में इस नज़्म में आकार लेती है जहां एक साथ बहुत सारे भाव हमें यहाँ नज़र आते हैं-वह अपनी लेखनी के इस ज़ुदा अंदाज़ के बारे में अक्सर कहते थे:“मैं शकील
दिल का हूँ तर्जुमा
के मुहब्बत का हूँ राजदां
मुझे फ़क्र हैं मेरी शायरी
मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं”
शकील बदायूँनी की लिखी इस खूबसूरत नज़्म को जब बेग़म अख़्तर की आवाज़ में हम सुनते हैं तो न केवल गाने वाले की दर्द भरी आवाज़ हमें पिघला देती है, बल्कि नज़्म को लिखने वाले शायर की शख्सियत और उसकी शायरी की गहराई से भी वाबस्ता होते जाते हैं।
इस कालातीत ग़ज़ल को हिन्दी फिल्म जगत के मशहूर संगीतकार ख़ैयाम ने सुरों से सजाया था। शास्त्रीय राग में बांधी गयी इस नज़्म को बेग़म अख्तर ने अपनी रूहानी आवाज़ में गाकर जो मुकाम दिया, वह समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त होकर मौसिक़ी की दुनियाँ में आज भी अनमोल माना जाता है। ख़ैयाम ने नज़्म को दरबारी राग में पिरोते और ताल मुग़लई में ढालते हुए संगीत को ऐसा बनाया जिससे कि नज़्म के हर अल्फ़ाज़ में गूँथे हुए भावों को खिल कर उभरने का मौका मिला।
इस पूरी नज़्म में शकील ने एक साथ कई भावों को जगह दी है। मोहब्बत , वफ़ा और दिल के मंसूबे – ऐसे कई जज़्बात यहाँ पिरोये गए है, पर एक प्रमुख अंतर्धारा जो शुरू से लेकर के आखिर तक बनी हुई है वह है- उम्मीद, एक तरह की प्रार्थना, एक इल्तिजा, एक आस, एक ख़्वाहिश जो कोई भी किसी से कर सकता है, भले ही यहाँ दोस्ती या प्यार को आधार बनाया गया है। ज़िंदगी से रूठे हुए शख्स को जिसे रिश्तों से बहुत कम उम्मीद हो, वह अपने सब से क़रीबी इंसान से बस उसके भरोसे को क़ायम रखने की इल्तिजा करता है। नज़्म में कुछ अच्छे पलों की याद है, तो कुछ गुज़िश्ता ग़मों के फिर से उखड़ जाने की बेचैनी। पूरी नज़्म ऐसे ही भावों को अपने में समेटे हुए, सुनने वालों की रूह में उतर जाती है, और हर सुनने वाला नज़्म से अपने स्तर पर एक रिश्ता क़ायम कर सकता है। इस गज़ल को सुनने वालों को लगता है कि मानो यह उसी के लिखा गया हो, हर अल्फ़ाज़, हर हर्फ़ सिर्फ उसी के लिए गढ़ा गया हो।