સંભવે જો આ યુગે તો આ રીતે જ એ ચીખશે:
હેં સુદામા, જે મળ્યું તે બેય હાથે લઈ લીધું ?
વિવેક મનહર ટેલર

इस मोड़ से तुम मुड़ गई – दुष्यंत कुमार

इस मोड़ से तुम मुड़ गई फिर राह सूनी हो गई।

मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं
हर वृक्ष की हर शाख फूलों से लदी होती नहीं
फिर भी लगा जब तक क़दम आगे बढ़ाऊँगा नहीं,
कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुनाऊँगा नहीं,
यह सोचकर सारा सफ़र, मैं इस क़दर धीरे चला
लेकिन तुम्हारे साथ फिर रफ़्तार दूनी हो गई!

तुमसे नहीं कोई गिला, हाँ, मन बहुत संतप्त है,
हर एक आँचल प्यार देने को नहीं अभिशप्त है,
हर एक की करुणा यहाँ पर काव्य की थाती नहीं     [ थाती – અમાનત ]
हर एक की पीड़ा यहाँ संगीत बन पाती नहीं
मैंने बहुत चाहा कि अपने आँसुओं को सोख लूँ
तड़पन मगर उस बार से इस बार दूनी हो गई।

जाने यहाँ, इस राह के, इस मोड़ पर है क्या वजह
हर स्वप्न टूटा इस जगह, हर साथ छूटा इस जगह
इस बार मेरी कल्पना ने फिर वही सपने बुने,
इस बार भी मैंने वही कलियाँ चुनी, काँटे चुने,
मैंने तो बड़ी उम्मीद से तेरी तरफ देखा मगर
जो लग रही थी ज़िन्दगी दुश्वार दूनी हो गई!

इस मोड़ से तुम मुड़ गई, फिर राह सूनी हो गई!

-दुष्यंत कुमार

કવિનું નામ લખ્યું ન હોય તોય પરખાઈ જાય કે આ દુષ્યંતકુમાર જ હોઈ શકે ! કેવી ચોટીલી વાત…!! કોઈ ફરિયાદ નથી, પણ હ્ર્દય વિરાન થઇ ગયું એ વાસ્તવિકતા નું હૂબહૂ ચિત્રણ….

दिल के बोझ को दूना कर गया जो ग़मखार मिला

2 Comments »

  1. pragnajuvyas said,

    February 2, 2021 @ 3:49 PM

    दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।

    मैंने तो बड़ी उम्मीद से तेरी तरफ देखा मगर
    जो लग रही थी ज़िन्दगी दुश्वार दूनी हो गई!
    इस मोड़ से तुम मुड़ गई, फिर राह सूनी हो गई!

    बहुत खूब

  2. Maheshchandra Naik said,

    February 2, 2021 @ 6:16 PM

    દુષ્યંતકુમાર નો આક્રોશ વ્યક્તિ સરસ રચના…..

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