તટ ઉપર રહીને તમાશો દેખનારા ! ભૂલ નહિ
જો નદી છે તો જ તટ છે, પણ નદી તટમાં નથી
– જવાહર બક્ષી

અછાંદસોત્સવ: ૦૬ : अपनी प्रेमिका से – दुष्यंत कुमार

मुझे स्वीकार हैं वे हवाएँ भी
जो तुम्हें शीत देतीं
और मुझे जलाती हैं
किन्तु
इन हवाओं को यह पता नहीं है
मुझमें ज्वालामुखी है
तुममें शीत का हिमालय है
फूटा हूँ अनेक बार मैं,
पर तुम कभी नहीं पिघली हो,
अनेक अवसरों पर मेरी आकृतियाँ बदलीं
पर तुम्हारे माथे की शिकनें वैसी ही रहीं
तनी हुई.
तुम्हें ज़रूरत है उस हवा की
जो गर्म हो
और मुझे उसकी जो ठण्डी!
फिर भी मुझे स्वीकार है यह परिस्थिति
जो दुखाती है
फिर भी स्वागत है हर उस सीढ़ी का
जो मुझे नीचे, तुम्हें उपर ले जाती है
काश! इन हवाओं को यह सब पता होता।
तुम जो चारों ओर
बर्फ़ की ऊँचाइयाँ खड़ी किए बैठी हो
(लीन… समाधिस्थ)
भ्रम में हो।
अहम् है मुझमें भी
चारों ओर मैं भी दीवारें उठा सकता हूँ
लेकिन क्यों?
मुझे मालूम है
दीवारों को
मेरी आँच जा छुएगी कभी
और बर्फ़ पिघलेगी
पिघलेगी!
मैंने देखा है
(तुमने भी अनुभव किया होगा)
मैदानों में बहते हुए उन शान्त निर्झरों को
जो कभी बर्फ़ के बड़े-बड़े पर्वत थे
लेकिन जिन्हें सूरज की गर्मी समतल पर ले आई.
देखो ना!
मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
सूर्योदय मुझमें ही होना है,
मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
इसी लिए कहता हूँ-
अकुलाती छाती से सट जाओ,
क्योंकि हमें मिलना है।

– दुष्यंत कुमार

અછાંદસના બાદશાહ દુષ્યંતકુમારની રચના મૂકવાની લાલચ રોકી ન શક્યો – શીર્ષકમાં કવિ સ્પષ્ટ કરી દે છે કવિતાનો ભાવાર્થ, પણ સુંદરતા કાવ્યતત્વની છે. અંતિમ પંક્તિમાં જે નિર્ધાર છે તે સમગ્ર કાવ્યને એક relevance પૂરું પાડે છે અને આખા કાવ્યમાં જે એક હઠ નો, એક ગર્વનો, એક અધિકારનો સૂર છે તેની હેઠળ જે અમાપ સ્નેહ છુપાયેલો છે તેને છતો કરે છે. કનૈયાલાલ મુનશીની મંજરી યાદ આવી જાય એવી નાયિકા છે અને નાયક પરશુરામના અવતાર સમો છે….. એકત્વ પામવું નક્કી છે- બાકીનું બધું જોયું જશે……

4 Comments »

  1. pragnaju said,

    December 13, 2018 @ 9:19 AM

    दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है , लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी समष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।दुष्यंत कुमार जी ने जहाँ भी नज़र दौड़ाई है बड़ी बारीकी से तस्वीर को उभारा है हर बार पढ़ने पर ऐसा लगता है उनकी पंक्तियाँ दिल पर जा कर आपको जगा रही हैं.
    मुझमें ही डूबा था सूर्य कभी,
    सूर्योदय मुझमें ही होना है,
    मेरी किरणों से भी बर्फ़ को पिघलना है,
    इसी लिए कहता हूँ-
    अकुलाती छाती से सट जाओ,
    क्योंकि हमें मिलना है।
    मा तीर्थेशजी आपको धन्यवाद इस बेहतरीन कविता और रसदर्शन के लिए
    मेरे पोतेने पूछा मुझे इंगलिशमें कहो…
    मैंने कहा-
    The Sunrise is to be in me
    I have to melt ice than my rays,
    This is why I say –
    Get up to the akulātī chest,
    Because we have to meet.

  2. ધવલ said,

    December 13, 2018 @ 11:01 PM

    ઉત્તમ કાવ્ય !

  3. વિવેક said,

    December 14, 2018 @ 8:43 AM

    દુષ્યંતકુમારને અછાંદસના બાદશાહ કહેવું જરા વધુ પડતું છે… એમને હિંદી ગઝલના બાદશાહ, અરે, બાદશાહોના બાદશાહ કહી શકાય. દુષ્યંતકુમારે ઉત્તમ અછાંદસ અને નઝ્મો પણ આપી છે પણ એમની ગઝલની આગળ એ ઊભા ન રહી શકે…

    અછાંદસ ઉત્તમ… મજા આવી માણવાની.

  4. Lata Hirani said,

    December 17, 2018 @ 7:09 AM

    કવિતામાં ગજબનું અટલપણું, વિશ્વાસનો હિમાલય અને એકરારનો એક્કો

    વિવેકભાઈની વાત સાથે સહમત છું.

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